विचारके देवों (मरुतों)का स्तोत्र*

 

   जगमगाता हुआ देवगण, विचारके देवताओंका गण मेरी आत्मामें उदित हो गया है । वे देव ऊपरकी ओर प्रयाण करते हुए एक स्तोत्र गाते हैं, जो हृदयके प्रकाशका एक सूक्त है । हे मेरी आत्मा ! तू उन देवोंके प्रचण्ड और बलशाली संगीतके सुर पर अति वेगसे आगे बढ़ती जो । वस्तुत: वे एक ऐसी अंतप्रेरणाके आनन्दसे मदोन्मत्त हैं, जो छल-कपट करके असत्यके पक्षमें नहीं चली जाती, क्योंकि शाश्वत प्रकृतिका सत्य उसका पथप्रदर्शक है ।1 वे स्थिर और देदीप्यमान प्रकाशके साथी हैं और प्रकाशके बलपर वे अपने उत्तुंग आक्रमणोंको कार्य-रूप देते हैं । विजयशील वे अपने पथपर प्रचण्ड वेगसे बढ़ते चले जाते हैं, स्वतः ही रक्षण करनेवाले वे असत्यके विरुद्ध हमारी आत्माकी स्वयमेव रक्षा करते है;2 क्योंकि वे अनेक हैं और अपने तेजस्वी दलोंमें बिना व्यवधानके प्रयाण करते हैं । द्रुतगतिसे दौड़ते हुए वृषभोंके झुंडकी तरह वे उग्र हैं । उनके सामने रात्रियाँ आती हैं, परन्तु वे उन रात्रियोंको कूदकर पार कर जाते हैं । वे हमारे विचारोंमें पृथिवीको अधिकृत करते हैं और उन्हींके साथ द्युलोकोंकी ओर ऊपर उठ आते हैं । वे न अर्ध-प्रकाश हैं और नाहीं शक्तिहीन वस्तुएँ, अपितु आक्रमणमें सशक्त और प्राप्तिके लिए महाशक्तिशाली हैं । वे प्रकाशके भालोंको पकड़े हुए हैं और उन्हें अपने हाथोंसे अन्धकारकी संतानपर छोड़ते हैं । विचारके देवोंकी कौंधती बिजली रात्रिकी तलाश करती है और उनके युद्ध-आह्वानपर द्युलोक का प्रकाश हमारी आत्माओंपर अपने आप उदित हो जाता है । सत्य उनका प्रकाशमय बल है । विचारके देवोंके गण आत्माके शिल्पी हैं और वे इनकी अमरताको गढ़ते हैं । वे हमारे जीवनके रथके आगे अपने द्रुतगामी अश्व जोतते हैं और उन्हें सरपट गतिसे आनन्दकी ओर हाँकते हैं जो जीवनका लक्ष्य है ।

 

 * ऋग्वेदके 5 वें मण्डलके ७ सूक्तों (52-58) पर आधारित ।

1. प्र श्यावाश्व धष्णुयादुर्चा मरुद्धिऋrक्वभि: ।

  ये अद्रोधमनुष्वधं श्रवो मदन्ति यज्ञिया: ।।

2. ते हि स्थिरस्य शवस: सखाय: सन्ति धृष्णुया ।

   ते यामन्ना धृषद्विनस्त्माना पान्ति शश्वत: ।। ऋ. V. 52-1, 2

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विचारके देवों ( मरुतों) का स्सोत्र

 

   उन्हेंने अपने अंग-प्रत्यंगको परुष्णीके--अपरिमित धाराओंवाली नदीके जलोंमें स्नान कराया है । उन्होंने दिव्य वेश धारण किया है और अब वे अपने रथोंके पहियोंसे प्रकृतिकी समस्त गुह्य गुफाओंको तोड़कर खोल देते हैं ।1 कभी तो वे शारवा-प्रशाखाओंवाले सहस्रों मार्गोंपर प्रयाण करते हैं और कभी अपने लक्ष्य पर सीधे दौड़ते हैं । कभी तो उनके मार्ग अन्दर ही अन्दर होते हैं और कभी वे बाह्य प्रकृतिके हजारों मार्गोंका अनुसाण करते हैं । विश्व-यज्ञ उनके देवत्वके अनेक नामोंसे तथा उनके सदा विस्तृत होते हुए प्रयाणसे अन्यने आपको पूरा करता है, किसी समय वे अपने आपको हमारे जीवनकी सरपट दौड़नेवाली शक्तियाँ बना लेते हैं, तो किसी वक्त वे देवता और आत्माकी शक्तियाँ बन जाते हैं । अन्तमें वे परम लोकके आकार, अन्तर्दृष्टिके आकार व प्रकाशके आकार धारण कर लेते हैं । उन्होंने लक्ष्य प्राप्त कर लिया है । वे विश्वके लयतालोंको आश्रय देते हैं, वे गान करते हुए वस्तुओंके असली स्रोतके ही चारों ओर अन्यने भव्य नृत्यका ताना-बाना बुनते हैं । वे परमोच्च आकारके स्रष्टा हैं । वे आत्माको अन्तर्दृष्टिमें विशाल बनाते हैं और हमें प्रकाशकी दिव्य प्रखर ज्वाला बना देते हैं । कारण, ये देव सत्यके वेगशाली अन्वेषक हैं; सत्यके लिए ही इनकी बिजलियां प्रहार करती और खोज करती हैं । वे द्रष्टा हैं, स्रष्टा और विधाता हैं । उनके आक्रमण द्युलोकके सामर्थ्य और शक्तिसे अत:प्रेरित होते हैं । इसलिए हमारे विचारोंमें पुष्ट किए हुए वे हमें अपने मार्गपर विश्वासके साथ दुतवेगसे बढ़ाए लिए चलते हैं । जब मन उनसे भरा होता है, वह देवत्वकी ओर आगे ले जाया जाता है, क्योंकि उनमें मार्गकी भास्वर अन्तःप्रेरणा होती है ।

 

कौन है वह जिसने उनके जन्मस्थानको जान लिया है ? या कौन है वह जो उनके परम आनन्दोंमें उनके साथ (एक अनसनपर) बैठा है ?2 q कौन है जो परे स्थित अन्यने सखाकी अभिलाषा और खोज करता है ? अपनी आत्मामें अनेक रंगरूपवाली एक 'मां'ने उन्हें अपने अंदर वहन किया और उस मांके विषयमें वे उसे बताते हैं । एक रौद्र देव (रुद्र) उनका पिता था जिसकी प्रेरणा सभी उत्पन्न प्राणियोंको परिचालित करती है और उसीको वे प्रकट करते हैं । सात और सात विचार-स्वरूप देव मेरी ओर

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 1.उत स्म ते परुष्ष्यामर्णा वसत शन्ध्यवः ।

   उत पव्या रथानामद्रिं भिन्दन्त्योजसा ।।            ऋ. V. 52. 9

2. को वेद जानमेषां को वा पुरा सुम्नेष्वास मरुताम् ।   ऋ. V. 53. 1

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आए और उन्होंने सात बार सौगुना (ऐश्वर्य) दिया । मैं अपने विचारोंके उज्ज्वल यूथोंको, जो उन्होंने प्रदान किए हैं, यमुनामें स्नान कराऊँगा और अपनी आत्माकी नदीमें अपने तीब्र वेगोंको शुद्ध-पवित्र करूँगा ।1

 

देखो ! वे अपने दलों और संघोंमें प्रयाण करते हैं । हम अपने चिन्तनोंकी चालके साथ उनके कदमोंपर चलें । क्योंकि, वे अपने साथ सृष्टिका अविनश्वर बीज और अमर रूपोंका परमाणु वहन करते हैं और इसे यदि वे आत्माके खेतोंमें बो दें तो वहाँ वैश्व जीवन और परात्पर आनन्दकी फसल उग आएगी । वे उस सबसे किनारा करेंगे जो हमारी अभीप्साका उपहास करता है और उस सबको पार कर जाएँगे जो हमें सीमित करता हे । वे सब प्रकारके दोषों और जड़ताओं तथा आत्माकी दरिद्रताओंको नष्ट कर देंगे । कारण, द्युलोकके प्राचुर्यकी वर्षा उन्हीकी है और उन्हींके है वे तूफान जो जीवनकी नदियोंको बहाए रखते हैं । उनकी विद्युत्-गर्जनाएँ हैं देवोंके सूक्तका गान और सत्यका उद्घोष । वे हैं एक आँख जो हमें सुखद मार्गपर ले जाती है और जो उनका अनुसरण करता हैं, वह लड़खड़ाता नहीं, और नाहीं वह पीड़ा वा आघात प्राप्त करता है और न जरा व मृत्यु ।2 उनके वैभव नष्ट नहीं होते और नाहीं उनके आनन्द क्षीण होते हैं ।वे मानवको द्रष्टा और राजा बना देते हैं । उनकी विशालता है दिव्य सूर्यकी दीप्ति । वे हमें अमरताके धामोंमें प्रतिष्ठित कर देंगे ।

 

वह सब जो पुरातन था और वह सब जो नूतन है, वह सब जो आत्मासे उठता है और वह सब जो अभिव्यक्त होना चाहता है-उस सबके प्रेरक वे ही हैं ।3 वे उच्च, निम्न और मध्य द्युलोकमें स्थित हैं । वे सर्वोच्च परम सत्तासे अवतीर्ण हुए हैं । वे सत्यसे उत्पन्न हुए हैं । वे मनके

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1. सप्त म सप्त शाकिन एकमेका शता ददुः ।

   यमुनायामधि श्रुतमुद् राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ।।

                                                  ऋ. V.52.17

2.... अध स्मा नो अरमतिं सजोषसश्चक्षुरिव यन्तमनु नेषथा सुगम् ।...

  न स जीयते मरुतो न हन्यते न स्रेधति न व्यथते न रिष्यति ।

                                                   ऋ. V.54.6-7

3. यत्पूर्व्य महतो यच्च नूतन यदुद्यते वसवो यच्च शस्यते ।

   विश्वस्य तस्य भवथा नवेदस: शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ।।

                                                     ऋ. V. 55.8

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ज्योतिर्मय नेता हैं । वे आनन्दकी मधुर मदिरा का पान करेंगे और हमें सर्वोच्च अन्त:प्रेरणाएँ प्रदान करेंगे । भगवती देवी उनके साथ है जो व्यथा, तृष्णा और कामनाको हमसे दूर कर देगी और मनुष्यके मनको फिरसे देवत्वके रूपमें गढ़ देगी । देखो ! ये सत्यके ज्ञाता हैं, ऐसे द्रष्टा हैं जिन्हें सत्य अन्त:प्रेरित करता है, ये हैं अभिव्यक्तिमें विशाल, प्रसारणमें बृहत्, नित्य युवा और अमर ।1

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 1. हये नरो मरुतो मृळता नस्तुवीमघासो अवृता ऋतज्ञा: ।

    सत्यश्रुत: कवयो युवानो बृहद्गिरयो वृहदुक्षमाणा: ।।

                                            ऋ. V. 58.8

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